खुद को पहली बार पहचाना मजदूरों ने

    0

    आनंद भारती : कोरोना ने भले हाहाकार पैदा कर जीवन-मृत्यु का रहस्यमय खेल खेला हो लेकिन उसने समाज के सबसे उपेक्षित समूह, मजदूरों, को पहली बार खुद की तरफ देखने की दृष्टि दे दी.सैकड़ों वर्षों से जिस आत्मदृष्टि की बात शास्त्र और संत करते रहे हैं, उसे एक वायरस ने चुटकी बजाते कर दिया.बाबा लोगों को कितनी सफलता मिली है, इसका एकाध प्रमाण भी खोज पाना मुश्किल है.लेकिन कोरोना की सफलता के प्रमाण सामने हैं.सैकड़ों मील पैदल चलकर अपने गांव जाने का फैसला, शहरों की सड़कों पर अपने घर जाने का बेताबी भरा गुस्सा का फूटना, सरकार को रेल-बस चलाने के लिए मजबूर करने का साहस और फिर कभी न लौटने की मंशा जाहिर कर सरकारों, बिल्डरों और कारखानेदारों के चेहरे पर चिंता की गहरी लकीरें खिंचना, उसी प्रमाण की पुष्टि है कि मजदूरों ने खुद की ताकत को पहचान लिया है.

    अब तक वे मजदूर फैक्ट्री, बिल्डिंग, हाईवे, रेल लाईन, मेट्रो, बांध, पुल को देखने के अभ्यासी थे.इसलिए कि ये सारी चीजें उनके जीने के उपादान हैं.इसके लिए वे अपने घर-परिवार, गांव-जवार, प्रदेश की सरहदों को लांघने में देर नहीं लगाते.एक कोई रवाना होता कि उसके पीछे प्रवासी पंछियों की तरह लोग कतार में शामिल जाते.जहां जंगल-नदी (काम) दीख जाता, वहीं मजदूर लोटा, थाली और थैला रख देते.महीना और दिन की गनती करना वे मानो भूल ही जाते.उन्हें बस इतना याद आता कि परिवार को खुशहाल बनाना है.देश के विकास में वे भी भारी योगदान दे रहे हैं, यह उन्हें पहले किसी ने भी नहीं बताया.अब पता चला कि उनके एक ‘ना’ से कैसे देश की पूरी अर्थ-व्यवस्था के चेहरे पर मुर्दनी छा गयी है.

    शहरों को विकास चाहिए, विकास को ठेकेदार, ठेकेदार को मजदूर नामक प्राणी चाहिए और मजदूरों को पैसे.उन मजदूरों को जिस भी हाल में रखिए, वे चूं तक नहीं करते.शिकायत नाम की चीज तो उनके खाते में इसलिए नहीं होती कि उनकी छवि मजबूर और असहाय की बनाई गई है.वे उसी छवि के साथ जीने के लिए विवश होते हैं.अस्थाई रूप में बनी छोटी-छोटी कोठरी या दड़बे में कोंच-कोंचाकर रहने के बाद भी उनके चेहरे पर शिकन नहीं होती है.जो लोग किराए की खोली में रहते हैं, उनकी स्थिति का बयान एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती धारावी ने खुले आम कर ही दिया.उसने यह भी बताया कि आज के परम आधुनिक युग में भी गरीब-मजलूमों की हैसियत क्या है? लेकिन शहर ऐसा आकर्षण का केंद्र बन गया है कि किसी तरह गुजर कर रहे लोग भी न गांव लौटने का मन बना पाते हैं और न वे उनलोगों को रोक पाते हैं जो गांव से पलायन के लिए परेशान रहते हैं.वे तो व्यवस्था और पूंजी-वर्ग के मकड़जाल में कैद हैं.यह मकड़जाल हमेशा समझाता रहता है कि अगर सुखमय जीवन जीना है तो गांव-घर का मोह छोड़ना होगा.मजदूर-बहुल राज्य सरकारें भी कभी इन्हें रोकने का प्रयास नहीं करती हैं.उन्हें पता है कि अगर ये मजदूर रह गए तो रोजगार न मिलने का असंतोष पनप जाएगा, जिसे संभालना आसान नहीं है.उन सरकारों के पास एक अद्भूत ‘सकारात्मक नज़रिया’ है कि बाहर से कमाकर ये मजदूर राज्य का ही फायदा पहुंचाते हैं.यह जो ‘हर्रे लगे न फिटकरी, रंग चोखा होय’ वाली नीति है, इसने समाज के एक बड़े हिस्से को दारु का चखना जैसा बना दिया है.इसी ने छोटे किसानों और मजदूरों को हमेशा कंगाल बनाए रखा है.

    इस सच से कौन इंकार कर सकता है कि खेती कभी भी आमदनी की गारंटी नहीं रही है.खेती से लागत खर्च का भी निकलना कभी-कभी मुश्किल हो जाता है.यही वज़ह है कि छोटे किसान खेती से ज्यादा मजदूरी को लाभप्रद मानने लगे हैं.मनरेगा उनका प्राथमिक साधन बन गया है लेकिन वह साल भर तक रोजगार नहीं देता है.इसलिए लोग शहर का रुख कर लेते हैं ताकि दिहाड़ी करके अपना और परिवार का गुजारा कर सकें.पेट भर जाए, यह उनका सपना होता है.इसी सपने को पूरा करने के लिए वे अपने घरों को पीछे छोड़ आते हैं.लेकिन इस बार लॉक डाउन यह अहसास दिलाने में कामयाब रहा कि बे-घर होना कितना बड़ा अभिशाप है.यह भी समझा दिया कि ‘तुम्हारे बिना विकास का कोई भी कार्य न शुरु होगा और न पूरा.इसलिए अपनी कीमत पहचानो और आंखें खोलकर दुनिया के साथ-साथ खुद को भी देखो।’

    वे काम पर लौटेंगे या नहीं, इस सवाल पर सबके अलग-अलग मत हैं लेकिन लॉक डाउन का निचोड़ यह है कि इन मजदूरों के जीवन की परवाह अगर सही मायने में संप्रभू वर्ग, अफसरों और व्यवस्था को होती तो ये अपना सब गंवा कर भाग नहीं रहे होते.जगह-जगह अटके मजदूरों ने सामूहिक चिंता के साथ उदास आवाज में एक प्रचलित राजनीतिक नारे को अपना बनाते हुए कहा ‘आधी रोटी खाएंगे लेकिन अपने परिवार के साथ गांव-घर में ही समय बिताएंगे।’ हालांकि जहां-तहां इन मजदूरों को सुविधाओं का लालच देकर रोकने की कोशिश की गई लेकिन वे एक ही रट लगाते रहे कि एक बार अपने गांव हो आना चाहते हैं.कुछ स्थानों पर मजदूरों को जब कुछ और सुविधाएं देने की पेशकश की गयी तो उन्होंने आशंका जाहिर की कि यह नई सुविधा उन्हें मात्र रोकने के लिए तो नहीं है?

    गांव लौटने की जो यह नई चेतना है, यह कौन सा रूप लेगी, कुछ स्पष्ट नहीं है.लेकिन उन्हें इतनी समझ तो आ ही गयी कि वे हमेशा अंधेरे में हाँके जाते रहे हैं.इसलिए उन्हें न तो रास्ते का पता चलता है और न गंतव्य का.लेकिन अब जगह-जगह से जो संकेत आ रहे हैं, वे नए समय के दरवाजे पर दस्तक जैसे हैं.लेकिन मुश्किल यह है कि इन मजदूरों का कोई संगठन नहीं है जो उनकी इस सोच को जन-संघर्ष में बदल सकें या तथाकथित विकास के रथ पर सवार होकर अपने श्रम का उचित कीमत वसूल कर सकें.हालांकि गांवों को समझने वाले विशेषज्ञों का मत है कि कोरोना-भय के खत्म होने के बाद मजदूर एक बार फिर लौटेंगे मगर उतनी तीब्रता नहीं होगी.जो लोग रह जाएंगे, उनके लिए आगे चलकर एक समस्या पैदा होगी कि वे अपने गांव में करेंगे क्या? तकलीफों के बावजूद शहर जो तसल्ली और स्वाद देता है, उसे भूल पाना आसान नहीं होता.कोरोना के बीच-बीच में जब शांति का सस्वर पाठ होगा और देश के विकास के नाम पर नए मुहावरे गढ़े जाएंगे, तब कितने लोग अपने आपको रोक पाएंगे?

    सबसे खतरनाक स्थिति तो यह है कि असंगठित मजदूरों के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनाई गई है.वे भगवान भरोसे हैं.सरकारों के पास एक ही अचूक इलाज है कि इन्हें संतुष्ट करने तक बीच-बीच में राहत देते रहो.वे भी खुश हो जाएंगे और व्यवस्था की नींद में खलल भी नहीं पड़ेगी.वह आश्वस्त है कि सातवें और आठवें दशक में बंगाल, तेलंगाना, बिहार (झारखंड), मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ), महाराष्ट्र आदि राज्यों के कुछ हिस्सों में जन-संघर्ष की फैली चिंगारी जब आग नहीं बन सकी तो अब क्या होगा? यह जो सुविधाजनक सोच है, ‘दीया और शास्त्रों तले भयानक अंधेरा होता है’ मुहावरे का नया राजनीतिक संस्करण है.अंधकार चलता रहता है.व्यवस्था उस अंधकार को गहरा करने के लिए अपनी आंखें बंद कर लेती है.वह सिर्फ सुधार का बैनर लिए चौक-चौराहे पर खड़ी हो जाती है ताकि लोगों को पता चल सके कि कुछ हो रहा है.पता नहीं, परिवर्तन लाने की जिद्द कब आएगी? यही देखकर लगता है कि ‘यथास्थितिवाद’ की परिधि से बाहर जाना किसी को भी पसंद नहीं है.

    रोटी को जुटाने के लिए मजदूर मारे-मारे फिरते हैं.उनके जीवन पर इतना भारी दवाब है कि अक्सर दूसरों के मोहताज हो जाते हैं.लेकिन उनपर किसी का ध्यान नहीं जाता है.गांवों में आज भी सामंती नगाड़े बजते हैं और उसकी ताल पर मजदूरों को नाचना होता है.वे भागकर शहर आते हैं लेकिन यहां एक दूसरी दुनिया से पाला पड़ता है.उपेक्षा, संवेदनहीनता और अमानवीयता को देखकर उन्हें बार-बार लगता है कि वे हर जगह से हाँके जा रहे हैं और कहीं सुरक्षित भी नहीं हैं.लेकिन कोरोना ने उन्हें ऊंगली पकड़कर समझा दिया कि जीवन का सच क्या है.

    Advertisement